Thursday, September 8, 2011

हर बार तेरी खिड़की कि ओर नज़रें उठाता हूँ

हर बार तेरी खिड़की कि ओर देख कर नज़रें झुकाता हूँ,
फिर कुछ लम्हों को याद कर थोड़ा मुस्कुराता हूँ,
कुछ देर तेरे आने का इंतज़ार करता हूँ,
फिर नज़रें झुका कर आगे बढ़ जाता हूँ...

कभी तू नज़र आ जाए इस चाह में,
न जाने कितने चक्कर लगाता हूँ,
तू तो आती नहीं है, कभी तेरी परछाई दिखती है,
तो उसे देख कुछ कुछ मन में गुनगुनाता हूँ...

हर रोज़ उस तरफ नज़रें खुद ही जाती हैं,
जैसे अपने आप कोई डोर खींचती जाती है,
पहले थोड़ा प्यार आता है, कुछ तसवीरें सामने आती हैं,
फिर जैसे ज़िन्दगी रुक सी जाती है,
याद आता है कितनी दूरियां हैं दरमियान,
आँखें बस आंसू बहा के रह जाती हैं....

किसी तरह नज़रें हटाता हूँ,
खुद को कोसता हूँ, फिर आगे बढ़ जाता हूँ,
चाहूँ तो आँखें मूँद सकता हूँ,
पर न जाने क्यूँ खुद को तड़पाता हूँ,
हर बार तेरी खिड़की कि ओर नज़रें उठाता हूँ,
थोड़ी देर तड़पता हूँ, फिर आगे बढ़ जाता हूँ...

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